समलैंगिक विवाह : व्यक्तिगत तथा सामूहिक अधिकार का द्वन्द

 

समलैंगिक विवाह : व्यक्तिगत तथा सामूहिक अधिकार का द्वन्द 


समलैंगिक विवाह : व्यक्तिगत तथा सामूहिक अधिकार का द्वन्द


प्रायः उच्च न्यायलय में नयी-नयी याचिकाएँ दर्ज होती है।  हाल ही में कुछ याचिकाओं के मामले में केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह के विरुद्ध अपना पक्ष रखा है।

पृष्ठ्भूमि

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिकता को विअपराधिकृत करने के उपरान्त समलैंगिक विवाह की मान्यता के सम्बन्ध में मांग उठने लगी है। हाल ही में समलैंगिक समुदाय से सम्बंधित कुछ लोगों ने दिल्ली उच्च न्यायालय से अपील की कि बिना इस बात पर विचार किए कि उनका लिंग क्या है,किन्हीं दो लोगों के बीच हुए विवाह को विशेष विवाह अधिनियम (एएसएमए) के तहत मान्यता प्रदान की जाए।
  • दो न्यायधीशों की पीठ ने केंद्र सरकार से जवाब माँगा था जिस पर केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह के विपक्ष में अपना मत प्रस्तुत किया है।

समलैंगिकता क्या होती है  :-

साधारण रूप से समलैंगिकता को प्रकृतिवश अथवा प्रेमवश समान लिंग के लोगों के मध्य आकर्षण के रूप में परिभाषित किया जाता है, परन्तु यह समलैंगिकता की संकुचित परिभाषा है। सरल शब्दों में कहा जाये तो जब दो समान लिंग के व्यक्ति एक दूसरे की तरफ आकर्षित होते है उनके मन में एक दूसरे के प्रति प्रेम पनपता है इसे समलैंगिकता कहा जाता है। 

मुख्य रूप से समलैंगिक श्रेणी में कई वर्ग आते हैं जिनका वर्णन निम्नवत है -

  • लेस्बियन (Lesbian महिला समलिंगी) - एक महिला का दुसरे महिला के प्रति आकर्षण
  • गे (Guy) - एक पुरुष का दुसरे पुरुष के प्रति आकर्षण
  • बाईसेक्सुअल (Bisexual ) - समान तथा विपरीत दोनों लिंगो के प्रति आकर्षण
  • ट्रांससेक्सुअल (Transsexual) - प्राकृतिक लिंग के विपरीत लिंग में परिवर्तन
  • क्यूर (Queer) - ये अपने लैंगिक आकर्षण के प्रति विश्वस्त नहीं होते।

समलैंगिक विवाह के पक्ष में तर्क

  • समलैंगिक विवाह के पक्ष में समलैंगिक समुदाय द्वारा निम्न तर्क दिए गए हैं
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 तथा 16 में लैंगिक आधार पर विभेदन का प्रतिषेध है परन्तु समाज मे इन अधिकारों का प्रायः उलंघन होता है।
  • समलैंगिक विवाह करने पर संपत्ति , बीमा , परिवार में प्राप्त अधिकारों से वंचित होना पड़ता है।
  • अनुच्छेद 19 1 (a) के अंतर्गत व्यक्ति को लैंगिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। परन्तु समलैंगिक विवाह की स्थिती में इस अधिकार का उपयोग नहीं हो पता।
  • कई बार समाज के रूढ़िवादी तत्वों द्वारा समलैंगिक विवाहित युग्म पर शारीरिक अथवा मानसिक हिंसा का प्रयोग भी किया जाता है।
  • इस प्रकार समलैंगिक विवाह से व्यक्ति के मूल अधिकार , सामाजिक अधिकार , पारिवारिक अधिकार के उपयोग में बाधा आती है। अतः समलैंगिक विवाह को विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत मान्यता दी जाए जिससे समलैंगिक विवाह करने वाले अपने अधिकारों को प्राप्त कर सकें।

केंद्र सरकार का न्यायलय में पक्ष 

  • संसद द्वारा विवाह की परिभाषा में स्पष्ट है कि भारत में विवाह को तभी मान्यता दी जा सकती है जब बच्चा पैदा करने में सक्षम "जैविक पुरुष" और "जैविक महिला" के बीच विवाह हुआ हो।
  • भारत में विवाह की लैंगिक आवश्यकता नहीं बल्कि संस्कार माना जाता है जो विवाह की पवित्रता का सूचक है।
  • भारतीय समाज में विवाह की अवधारणा एक पति, एक पत्नी और बच्चे पर आधारित है, जिसकी तुलना समलैंगिक परिवार के साथ नहीं की जा सकती है।
  • माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इसे विअपराधिकृत किया गया है इससे समलैंगिक विवाह या आचरण को मूल अधिकार मानने की पुष्टि नहीं होती है।
  • विशेष विवाह अधिनियम -1954 या हिन्दू विवाह अधिनियम -1955 में संसोधन की शक्ति विधायिका में निहित है न कि न्यायपालिका में। अतः विधायिका सामाजिक नैतिकता व व्यक्ति के स्वतंत्रता के संतुलन को बनाते हुए इस प्रकार के विवाह की मान्यता देने स्थिति पर विचार कर सकती है।

भारतीय समाज तथा समलैंगिकता

  • प्राचीन भारतीय ग्रंथो में किन्नर शब्द संभवतः समलैंगिक समुदाय को सूचित करता था। ऋग्वेद के एक सूक्त में लिखा है कि "विकृतिः एव प्रकृतिः " अर्थात जो अप्राकृतिक है वह भी प्रकृति की ही देन है।
  • समय के साथ- साथ कुछ धार्मिक मान्यताओं तथा सामाजिक आवश्यकताओ में पुत्र की बढ़ती मांग के कारण जैविक पुरुष तथा जैविक महिला के सम्बन्धो को ही सामाजिक मान्यता प्राप्त होने लगी जिससे समलैंगिकों की सामाजिक स्थिति में गिरावट आई। आज उच्चतम न्यायालय के निर्णय के उपरान्त भी समलैंगिक समुदाय समाज में उपेक्षाओ का शिकार है।
  • आज भी भारतीय समाज में ऐसे बहुत से रूढ़िवादी लोग है जो किन्नरों को घृणा की द्रष्टि से देखता है। आधुनिक भारत में रहने के बावजूद हमारा समाज उन्हें समानता के अधिकार से नही देखता। 

भारत में समलैंगिक आधिकारो का विकास

  • यद्यपि प्राचीन तथा मध्यकाल में भी यह समुदाय अस्तित्व में था परन्तु सामाजिक नियमो की प्रबलता के फलस्वरूप ये अपनी पहचान गुप्त रखते थे। 2001 में नीदरलैंड में समलैंगिक आधिकारो को मान्यता मिलने के उपरान्त भारत में समलैंगिक आधिकारो की मांग तब बढ़ी जब नज इंडिया फाउंडेशन द्वारा 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई।
  • 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिक प्रेम सम्बन्धो को आपराधिक कृत्य की श्रेणी से बाहर कर दिया परन्तु 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को परिवर्तित कर दिया।
  • 2016 में यह मामला 5 सदस्यीय संबैधानिक पीठ के पास भेजा गया। संवैधानिक पीठ के निर्णय में दो वयस्कों के सम्बन्ध को  निजी मानकर धारा 377 के समलैंगिकता वाले प्रावधान को विअपराधिकृत कर दिया गया।

निष्कर्ष

• भारत में समलैंगिक समूह लगभग 8% हैं अर्थात इनकी जनसंख्या 10 करोड़ से अधिक है। इतने विशाल जनसँख्या के संबंध में निर्णय लेते समय सावधानी बरतने की आवश्यकता है। उसके साथ ही तेजी से परिवर्तित होते समाज तथा व्यक्तिगत अधिकारों के मध्य संतुलन स्थापित करना भी आवश्यक है। भारतीय न्यायालयो ने कई बार ऐसी परिस्थितियों में प्रगतिशील समाज और व्यक्तिगत अधिकारों को संतुलित कर निर्णय दिया है। इस बार भी इन दोनों पक्षों को ध्यान में रखकर निर्णय दिया जाना चाहिए। क्योंकि सभी व्यक्तियों को समान जीने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को  समानता अधिकार है। 


English translation of this topic below

Gay Marriage: Conflict of Individual and Group Rights

Often new petitions are filed in the High Court. Recently, in the case of some petitions, the Central Government has submitted its stand against gay marriage in the Delhi High Court.

Background

After the Supreme Court has decriminalized homosexuality, demands have arisen regarding the recognition of same-sex marriage. Recently some people belonging to the gay community appealed to the Delhi High Court to recognize the marriage between any two people under the Special Marriage Act (ASMA) without considering what their gender is.

A bench of two judges sought a response from the central government, on which the central government has submitted its vote in opposition to gay marriage.

What is homosexuality: -

Homosexuality is generally defined as attraction between people of the same sex by nature or love, but it is a narrow definition of homosexuality. In simple words, when two same-sex people are attracted towards each other, their love for each other develops in their minds, it is called homosexuality.

There are several categories mainly in the gay category which are described as follows -

Lesbian (Lesbian Lesbian) - A Woman's Attraction To Another Woman

Gay - One man's attraction to another man

Bisexual - Attraction towards both same and opposite sexes

Transsexual - Changes in the opposite sex of the natural gender

Queer - They are not confident about their sexual attraction.

Arguments in favor of same-sex marriage

The following arguments have been made by the gay community in favor of gay marriage

Articles 15 and 16 of the Indian Constitution prohibit discrimination on the basis of gender, but these rights are often violated in society.

Gay marriage is denied property, insurance, rights in the family.

Under Article 19 1 (a) a person has the right to freedom of sexual expression. But in the case of gay marriage, this right should not be used.

Many times, physical or mental violence is also used by conservative elements of society on same-sex couples.

Thus gay marriage hinders the use of basic rights, social rights, family rights of the person. Therefore, gay marriage should be recognized under the Special Marriage Act, so that gay marriages can get their rights.

Central government

The definition of marriage by Parliament makes it clear that marriage in India can be recognized only when there is a marriage between a "biological man" and a "biological woman" capable of bearing a child.

In India, marriage is not considered to be a sexual necessity, but a rite that is indicative of the sanctity of marriage.

The concept of marriage in Indian society is based on a husband, a wife and a child, which cannot be compared with a gay family.

It has been de-criminalized by the Hon'ble Supreme Court. This does not confirm homosexual marriage or conduct to be a fundamental right.

The power of amendment in the Special Marriage Act-1954 or Hindu Marriage Act-1955 is vested in the legislature and not in the judiciary. Therefore, the legislature can consider the status of recognizing this type of marriage while balancing the social morality and freedom of the individual.

Indian Society and Homosexuality

In ancient Indian texts, the word kinnar probably referred to the gay community. It is written in a Sukta of the Rigveda that "pathology and nature" means that what is unnatural is also the gift of nature.

Over time, due to the increasing demand of the son in certain religious beliefs and social needs, the relationship of biological man and biological woman started to get social recognition, which led to the decline in the social status of homosexuals. Today, even after the decision of the Supreme Court, the gay community is a victim of neglect in the society.

Even today there are many conservative people in Indian society who look at the eunuchs with hatred. Despite living in modern India, our society does not see them with the right to equality.

Development of gay rights in India

Although this community existed in ancient and medieval times too, due to the predominance of social rules, they kept their identity secret. After the recognition of gay rights in the Netherlands in 2001, the demand for gay rights in India increased when a petition was filed by the Nudge India Foundation in 2001 in the Delhi High Court.

In 2009, the Delhi High Court excluded homosexual relationships from criminal acts, but in 2013 the Supreme Court changed the decision of the Delhi High Court.

In 2016, the matter was referred to a 5-member Constitutional Bench. In the decision of the constitutional bench, the provision of homosexuality of section 377 was criminalized by considering the relationship of two adults as private.

The conclusion

• Homosexual groups constitute around 8% in India, meaning they have a population of over 100 million. There is a need to be careful while taking decisions regarding such a large population. Along with that, it is also necessary to strike a balance between a rapidly changing society and individual rights. Indian courts have often given judgments in such circumstances by balancing progressive society and individual rights. This time too, a decision should be given keeping these two sides in mind. Because all people should have the right to live the same. Everyone has equality rights.



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